'उन्हें लगा कि घटना के बाद मैं चुप हो जाऊंगी, शर्म के मारे घर के अंदर छुप जाऊंगी, इज्ज़त के डर से सबसे सच्चाई छुपा लूंगी और सारा दोष अपने सर ले लूंगी.पर मैंने ऐसा नहीं किया, सबके सामने सच बोला, कोर्ट में केस लड़ा और आज गरिमा यात्रा में अपना विश्वास वापिस पाया, लड़ने का हौसला मिला.' अक्टूबर 2018 का समय, जब यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं की भीड़ सोशल मीडिया पर इकट्ठा होना शुरू हुई. हर रोज हैशटैग मीटू के माध्यम से कई प्रतिष्ठित चेहरों के नकाब उतरे. कई मामले दर्ज हुए और कई बस सोशल मीडिया के पोस्ट तक सीमित रह गए. कुछ लोगों ने इस पूरे मूवमेंट को पब्लिसिटी स्टंट बताया. तो कुछ ने ये दावा किया कि इस मूवमेंट से केवल शहरी, इंटरनेट चलाने वाली, पढ़ी लिखी महिलाओं को आवाज मिल सकी है, ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाओं को जोड़ने में यह मूवमेंट पूरी तरह विफल साबित हुआ है. लेकिन इसी बीच हमारी नजरों से दूर यौन उत्पीड़न की शिकार दलित-आदिवासी महिलाएं भी संगठित होना शुरू हो गई थीं. और इसके लिए उन्होंने सोशल मीडिया नहीं, बल्कि सड़क का रास्ता चुना. इसे ग्रामीण महिलाओं का मीटू मूवमेंट कह सकते हैं शायद यह पहला मौका होगा जब दिल्ली के रामलीला मैदान में देशभर से 5000 रेप पीड़िताएं, बिना किसी घूंघट, डर, हिचक और शर्म के एक साथ इकट्ठा हुईं हों. 20 दिसंबर को दलित-आदिवासी महिलाओं, बच्चों के साथ हुए यौन-शोषण-उत्पीड़न की घटनाओं को खत्म करने और उन्हें समाज के सामने अपनी बात रखने की हिम्मत देने के उद्देश्य से शुरू हुई गरिमा यात्रा का यह अंतिम पड़ाव था. 24 राज्यों और 200 जिलों से होते हुए इन साहसी महिलाओं और उनके परिवारों का जत्था 22 फरवरी को रामलीला मैदान पहुंचा. मौके पर रेप पीड़िताओं के लिए बीते 30 साल से काम कर रही भंवरी देवी और अन्य महिलाओं ने खुलकर अपनी आप-बीती कैमरे के सामने रखी. इन्हीं में से एक मध्य प्रदेश, रीवा की रहने वाली पलवा (बदला हुआ नाम) ने अपनी कहानी हमसे साझा की. पलवा की उम्र 20 साल है. जब बलात्कार हुआ, तब 18 की थीं. उस दिन को याद करते हुए वे बताती हैं, ' मैं ग्यारहवीं में पढ़ती थी. स्कूल करीब एक किलोमीटर की दूरी पर था. रोज पैदल ही रास्ता तय करती थी, लेकिन आम दिनों की तरह उस दिन मेरे साथ मेरी कोई दोस्त नहीं थी. मैं अकेली ही थी. रास्ते में एक वैन में बैठे तीन लोगों ने मुझे अगवा कर लिया. मेरा मुंह बांध दिया गया. और वो मुझे दूर कहीं पहाड़ी इलाके में ले गए. वहां दूर-दूर तक केवल जंगल ही जंगल था. तीनों ने मुझे वहां गाड़ी से नीचे उतारा. मारते-पीटते जंगल में ले गए. और एक-एक करके करीब डेढ़ घंटे तक मेरा रेप किया. फिर वह मुझे वहां से मध्य प्रदेश के बाहर ले गए. यहां मुझे एक कमरे में बंद रखा गया. रोज रात को यह तीनों एक-एक कर के मेरा रेप करते थे. यह सिलसिला एक महीने तक चला. इधर मेरे मम्मी-पापा ने मेरी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवा दी थी. करीब डेढ़ महीने बाद पुलिस मुझे ढूंढते हुए वहां पहुंच गई. दोषी गिरफ्तार हो गए और मैं वापस रीवा आ गई. यहां मेरी मेडिकल जांच हुई. गंदे-गंदे सवाल पूछे गए. कैसे करता था? मजा आता था? दिन में कितनी बार करता था? ऐसे में रीवा पहुंचने के बाद मेरा पहला दिन पुलिस स्टेशन में ही गुजरा. अगले दिन मुझे पुलिस स्टेशन से लेने मेरे मामा आएं. घर आकर उन्होंने बिना बात के मुझे पीटा. मेरे मां-बाप से मुझे जान से मार देने की बात कही. पापा तैयार भी हो गए, लेकिन मां बीच में आ गई. इधर पड़ोसी बीस तरह की बात बोलते थे. 'खुद चली गई होगी. गरमी होगी बहुत. उसी के साथ रह जाती. मार डालते. और भी ना जाने क्या-क्या. कुछ समय बाद मेरे मां-बाप ने मेरी शादी ठीक कर दी. मेरे पति को मेरे बलात्कार के बारे में नहीं बताया गया. शादी के बाद जब उन्होंने मेरे साथ शारीरिक संबंध बनाया और मुझसे पूछा कि क्या तुम्हारा पहले भी संबंध रह चुका है? तब मैंने सारी बात अपने पति और ससुराल वालों को बता दी. मेरे पति ने मुझे छोड़ दिया. अब वो दूसरी शादी करने वाले हैं. सास-ससुर कोई बात नहीं करते. मैं अपने मां-बाप के साथ रहती हूं.और अब इज्जत ले डूबी, मर जाती, पैदा ही नहीं होती जैसी बातें सुनने की आदी हो गई हूं. गरिमा यात्रा अभियान से कैसे जुड़ीं? मेरे जीजा ने मुझे इससे जोड़ा. यहां अपने जैसी इतनी महिलाओं को देखकर बहुत हिम्मत मिलती है. पहले अपनी कहानी बताते हुए पूरा शरीर ठंडा पड़ जाता था. मैं कांपने लगती थी, लेकिन अब कम से कम सारी बात खुलकर रख पाती हूं. पलवा का केस अभी कोर्ट में चल रहा है. इंसाफ में लंबा समय है. और ये लंबा समय उन्हें अकेले ही काटना है. हालांकि पलवा को इस बुरे समय से लड़ने और बलात्कारियों के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत उन्हीं के अगल-बगल के लोग देते हैं. 'महाराष्ट्र की धुलिया तो शादीशुदा थी. दो बेटे भी थे. एक दिन बगल के कुछ पड़ोसी ये कह कर ले गए कि गाड़ी बुक की है, पुराना किला देखने चलोगी? इन पड़ोसियों में एक महिला भी थीं. धुलिया चलीं तो गईं, लेकिन फिर उधर ही उन्हें बेच दिया गया. हीरा नाम के शख्स ने उनसे जबरदस्ती शादी की. रेप किया. कई महीनों तक करता रहा. इस बीच वो गर्भवती भी हो गईं. 6 महीने बीत गए. फिर एक दिन वहां से भागने में कामयाब हो गई. 6 महीने के बच्चे को लेकर जब धुलिया घर पहुंची तो पति ने उन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया. डॉक्टर ने भी बच्चा गिराने से मना कर दिया. वो अपने मायके वापस आ गईं. 6 महीने बाद उन्होंने एक और बेटे को जन्म दिया. बच्चा अब दो साल का हो गया है. इस यात्रा में वह अपनी मां के साथ आया है.' यह पूछने पर कि क्या इस बच्चे को देखकर गुस्सा नहीं आता, धुलिया कहती हैं- 'इस बच्चे का क्या दोष है. गुस्सा तो उस बलात्कारी और अपने उन पड़ोसियों पर आता है. मेरे पड़ोसी गोरक, मंगल और भैय्या हमें धमकी देते हैं. केस वापस लेने के लिए कहते हैं. पर मैं इन्हें नहीं छोडूंगी. इन्होंने मुझे कई दफे पीटा. मजदूरी कर के अपने बच्चों का पेट पालती हूं मैडम. इनको सबक सिखाकर ही मानूंगी.' लोगों का रवैया कैसा रहता है? क्या रहेगा, आप बताओ. मुझे छोड़िए इस बच्चे को गंदी गाली देते हैं. घर में कोई बात नहीं करता. बस बच्चों के भरोसे जिंदा हूं. सोचती हूं ये बड़े हो जाएंगे तो रोटी के लाले तो नहीं पड़ेंगे. इस यात्रा में शामिल होने के पीछे कोई कारण बहुत हिम्मत दी है इस संस्थान ने. वकील कराने से लेकर, दवा-दारू सब यही करते हैं. मैं इस यात्रा में केवल इसलिए शामिल हूं क्योंकि कई महिलाएं यहां ऐसी हैं, जिनकी कहानी मुझसे भी ज्यादा दर्दनाक है. फिर भी वो जी रही हैं. मुझे इन्हें देखकर जिंदगी जीने की हिम्मत मिलती है. लोगों का नजरिया क्या बदलेगा हमारे लिए. लेकिन अगर हम खुद को सम्मान के नजर से देखेंगे तो दूसरे क्या सोचते हैं, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. इस यात्रा में रेप-पीड़िताओं के अलावा नाबालिग रेप पीड़िताओं के माता-पिता भी पहुंचे हैं. किसी की बच्ची 8 साल में रेप का शिकार हो गई तो किसी की 16 साल में. जहां मध्य प्रदेश के बैतूल जिले से आई ललिता ने रेप होने के बाद अपनी बेटी का स्कूल छुड़वा दिया, वहीं झांसी से आई गीता ने छुप-छुपाकर बेटी की शादी करा दी. लेकिन इंसाफ की गुहार में सबके स्वर बुलंद हैं. इन सभी की मांग है कि सरकार दोषियों को जल्द से जल्द सजा देने के लिए ठोस पॉलिसी बनाए और उसे लागू करवाए. कानूनी और मेडिकल लड़ाई से इतर रेप पीड़िताओं के लिए सामाजिक लड़ाई भी बहुत बड़ा संघर्ष है. पीड़िताओं के इसी दर्द को समझते हुए 'राष्ट्रीय गरिमा अभियान' 10 साल पहले शुरू किया गया. अभियान के संयोजक आशिफ शेख का कहना है, '10 सालों में हमने 11000 रेप विक्टिम के साथ काम किया. हमारा मकसद केवल उन्हें कानूनी लड़ाई के लिए तैयार करना नहीं है. बल्कि हम उन्हें सामाजिक लड़ाई लड़ने की हिम्मत भी देते हैं.' 'हम चाहते हैं कि ये महिलाएं खुलकर सामने आएं. मुंह तो दोषियों को छुपाना चाहिए. लेकिन हम क्या करें, हमारे समाज का ढ़ांचा ही ऐसा है. ऐसे में हम चाहते हैं कि लोग समझें कि इनकी इज्जत कहीं नहीं गई. हमने रेप, गैंगरेप, ट्रैफिकिंग के शिकार लोगों को समझाया है कि वो बहादुरी से लड़ें. ना कि उस समाज को सुनकर शर्मसार हों, जो उनसे गलत सवाल करता है. जन साहस डिवेलपमेंट सोसायटी का सर्वे तो कहता है कि 95% महिलाओं और बच्चों पर सेक्सुअल हैरसमेंट के मामले रिपोर्ट ही नहीं होते.' (सभी महिलाओं के नाम बदल दिए गए हैं)
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Saturday, 23 February 2019
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गरिमा यात्रा अभियान: सोशल मीडिया नहीं, सड़क पर उतरा दलित-आदिवासी रेप पीड़िताओं का #MeToo मूवमेंट
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