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Tuesday, 29 January 2019

क्या 27 प्रतिशत आरक्षण की मांग से सवर्ण आरक्षण का मुकाबला कर पाएंगे कमलनाथ

केंद्र की बीजेपी सरकार द्वारा सामान्य वर्ग को दस प्रतिशत का आरक्षण दिए जाने के बाद मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने अपना ध्यान अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के वोटरों पर केंद्रित कर दिया है. ओबीसी समूह को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की मांग कांग्रेस के भीतर से ही उठने लगी है. राज्य में कुल 52 प्रतिशत ओबीसी हैं. ओबीसी समूह को सरकारी नौकरियों में 14 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है. विरोधी दल बीजेपी के मुकाबले में बीजेपी के पास ओबीसी का कोई वजनदार चेहरा नहीं है. बीजेपी में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं. हाल ही के विधानसभा चुनाव में ओबीसी समूह का वोटर कांग्रेस के पक्ष में आता हुआ दिखाई दिया है. कांग्रेस दलित-आदिवासी के साथ ओबीसी वोटर को जोड़कर लोकसभा में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना चाहती है. अभी कांग्रेस के पास लोकसभा की सिर्फ तीन सीटें है. कमलनाथ के लिए मुश्किल भरी है लोकसभा चुनाव की राह लगभग चालीस साल के राजनीतिक जीवन में पहली बार कमलनाथ के सिर पर लोकसभा चुनाव जीताने की सीधी जिम्मेदारी आई है. खुद कमलाथ ने पहली बार लोकसभा का चुनाव वर्ष 1980 में छिंदवाड़ा से लड़ा था. विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कमलनाथ राज्य की राजनीति में पहली बार सक्रिय भूमिका में दिखाई दिए. पार्टी ने उनके नेतृत्व में ही विधानसभा का चुनाव जीता है. 114 सीटों के साथ पार्टी की पंद्रह साल बाद सत्ता में वापसी हुई है. सरकार की बागडोर संभालते ही कमलनाथ के सामने लोकसभा का चुनाव चुनौती के तौर पर सामने खड़ा हुआ है. ये भी पढ़ें: कांग्रेस सत्ता में आई तो गरीबों को मिनिमम इनकम की गारंटी: राहुल गांधी विधानसभा चुनाव के नतीजों से कांग्रेस में लोकसभा की सत्रह सीटें जीतने की उम्मीद जागी है. 1990 के बाद अपवाद स्वरूप दो लोकसभा चुनाव को छोड़कर कांग्रेस कभी भी लोकसभा में दहाई अंक में सीटें नहीं जीत पाई. अविभाजित मध्यप्रदेश में लोकसभा का आखिरी चुनाव वर्ष 1999 में हुआ था. अविभाजित मध्यप्रदेश में लोकसभा की कुल चालीस सीटें थीं. इन चालीस सीटों में से कांग्रेस के खाते में केवल 11 सीटें आईं थीं. 2000 में छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बन जाने के बाद मध्यप्रदेश में लोकसभा की 29 सीटें बची हैं. 2004 के चुनाव में कांग्रेस लोकसभा की सिर्फ चार सीटें जीत पाई थी. वहीं 2009 के चुनाव में कांग्रेस को बारह सीटें मिलीं थीं. जबकि राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी. 2014 की नरेंद्र मोदी लहर में कांग्रेस सिर्फ दो सीटों पर सिमट कर रह गई थी. रतलाम-झाबुआ सीट को उसने उपचुनाव में अपने खाते में डाला. मध्यप्रदेश में गुना, छिंदवाड़ा और रतलाम-झाबुआ की सीट ही ऐसी है, जिस पर कांग्रेस अपनी जीत को लेकर आश्वस्त रहती हैं. गुना की सीट से ज्योतिरादित्य सिंधिया, छिंदवाड़ा से कमलनाथ और झाबुआ से कांतिलाल भूरिया चुनाव लड़ते हैं. झाबुआ की सीट आदिवासी बाहुल्य है. इस कारण कांग्रेस को यहां जीत सुनिश्चित लगती है. सिंधिया और कमलनाथ अपने प्रभाव के कारण चुनाव जीतते हैं. कमलनाथ ने इस बार लोकसभा की बीस सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है. जबकि राज्य की कई लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां कि कांग्रेस के लिए उम्मीदवार का चयन करना भी मुश्किल भरा होता है. ऐसी सीटों में भोपाल और इंदौर की लोकसभा सीट प्रमुख हैं. ओबीसी वोटर से उम्मीद लगाए बैठी है कांग्रेस चुनाव के वक्त मध्यप्रदेश में कुछ सीटों पर धर्म के आधार पर वोटों के धुव्रीकरण का खतरा हमेशा ही बना रहता है. भोपाल और इंदौर की लोकसभा सीट लगातार बीजेपी के खाते में जाने की बड़ी वजह भी धर्म के आधार पर वोटों को ध्रुवीकरण होना ही है. मुस्लिम, कांग्रेस का परंपरागत वोटर है. लेकिन,अनुसूचित जाति और जनजाति के वोटर कांग्रेस से दूरी बनाए नजर आता है. राज्य में अनुसूचित जाति के लिए चार तथा जनजाति के लिए कुल 6 सीटें लोकसभा की आरक्षित हैं. वर्तमान में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित झाबुआ सीट को छोड़कर कोई भी अन्य आरक्षित सीट कांग्रेस के पास नहीं है. मालवा-निमाड़ में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित तीन सीटें हैं. रतलाम-झाबुआ,धार और खरगोन. वहीं महाकोशल इलाके में शहडोल और मंडल की लोकसभा सीट आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित है. यह क्षेत्र मुख्यमंत्री कमलनाथ के असर वाला क्षेत्र माना जाता है. इन सीटों पर पिछड़े वर्ग के वोटर काफी निर्णायक स्थिति में माने जाते हैं. पिछड़े वर्ग के वोटर महाकोशल की अन्य सीटों पर भी अपना दम दिखाते हैं. अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग जातियों का असर देखने को मिलता है. कहीं यादव निर्णायक है तो कहीं लोधी वोट महत्वपूर्ण हो जाते हैं. किरार-धाकड़ वोटर भी काफी संख्या में हैं. राज्य में लगभग 52 प्रतिशत वोटर पिछड़े वर्ग के हैं. इन वोटरों की कांग्रेस से दूरी हमेशा ही स्पष्ट तौर पर देखी जाती रही हैं. विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने पिछड़े वर्ग के वोटरों को साथ लाने की कवायद जरूर की थी, लेकिन वह पूरी तरह सफल नहीं हुई. खासकर विंध्य के इलाके में. विधानसभा के चुनाव में यहां कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई. विंध्य में आदिवासी वोटर भी हैं. इनका साथ भी कांग्रेस को नहीं मिल पा रहा है. राज्य में बीस प्रतिशत आदिवासी हैं. अनुसूचित जाति वर्ग की आबादी सोलह प्रतिशत से अधिक है. ये भी पढ़ें: बीजेपी पर भारी पड़ेगा महागठबंधन: एसपी-बीएसपी-आरएलडी के पास 50 फीसदी से ज्यादा वोट भारतीय जनता पार्टी को उच्च वर्ग के साथ अनुसूचित जाति-जनजाति का साथ लगातार मिल रहा है. इस कारण कांग्रेस लोकसभा में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाती है. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव को जीतने के लिए कांग्रेस ने अब पिछड़े वर्ग के वोटरों को साथ लाने की कवायद तेज की है. इसी कड़ी में कांग्रेस से जुड़े पिछड़ा वर्ग के नेता सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण की मांग उठा रहे हैं. पिछड़ा वर्ग कांग्रेस के अध्यक्ष एवं राज्यसभा सदस्य राजमणि पटेल कहते हैं कि आरक्षण का पुराना रोस्टर लागू किया जाएगा तब ही 52 प्रतिशत आबादी को लाभ मिल पाएगा. पिछड़ा वर्ग कांग्रेस ने अपनी मांग के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित कर मुख्यमंत्री कमलनाथ को भेज दिया है. बुआ-भतीजे के गठबंधन से नुकसान की आशंका कांग्रेस को डर है कि उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन का असर मध्यप्रदेश में भी पड़ सकता है. ये दोनों पार्टियां पिछले लोकसभा चुनाव में अपना खाता भी नहीं खोल पाईं थीं. हाल ही में हुए विधानसभा के चुनाव के नतीजे भी इन दोनों दलों के लिए उत्साहित करने वाले नहीं रहे. बीएसपी को दो और एसपी को विधानसभा की सिर्फ एक ही सीट मिल पाई है. इन दोनों दलों के साथ आ जाने का असर लगभग आधा दर्जन लोकसभा सीटों पर पड़ सकता है. समाजवादी पार्टी यादव वोटरों को अपने पक्ष में कर सकती है. कांग्रेस के पास ऐसा कोई नेता भी नहीं है, जो कि पिछड़ा वर्ग के वोटरों को साध सके. यादवों के लिए प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष अरुण यादव का चेहरा जरूर है. अरुण यादव का चेहरा अखिलेश यादव की तुलना में वजनदार नहीं माना जा सकता. उनके भाई सचिन यादव कमलनाथ मंत्रिमंडल में कृषि मंत्री हैं. मंत्रिमंडल में एक अन्य सदस्य लाखन सिंह यादव हैं, लेकिन इनका कोई असर  ग्वालियर से बाहर नहीं हैं. पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री कमलेश्वर पटेल भी पिछड़ा वर्ग से हैं. उनका भी प्रभाव सीधी जिले तक ही सीमित है. हुकुम सिंह कराड़ा गुर्जर समुदाय के हैं. उनका प्रभाव क्षेत्र भी सीमित है. जबकि विरोधी दल बीजेपी में पिछड़ा वर्ग के नेताओं की लंबी कतार है. पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पिछ़ड़ा वर्ग से ही हैं. पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर और उमा भारती भी पिछड़ा वर्ग से ही हैं. उमा भारती का असर लोधी समाज पर है. गौर,यादव हैं. सवर्ण आरक्षण की काट मानी जा रही है ये मांग अधिकतम पचास प्रतिशत आरक्षण की संवैधानिक बाध्यता के कारण राज्य में पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना संभव नहीं है. राज्य में अनुसूचित जाति के लिए सोलह प्रतिशत और जनजाति वर्ग के लिए बीस प्रतिशत तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए चौदह प्रतिशत आरक्षण पहले से ही दिया जा रहा है. यह आरक्षण अधिकतम सीमा में है. कांग्रेस की समस्या केंद्र सरकार द्वारा सामान्य वर्ग को दिया गया दस प्रतिशत आरक्षण है. इस आरक्षण के लागू होने के बाद मध्यप्रदेश में भी इसका लाभ देने की मांग उठ रही है. कांग्रेस को डर है कि सवर्ण वोटर बीजेपी के पक्ष में वापस लौट सकता है. सपाक्स के अध्यक्ष हीरालाल त्रिवेदी कहते हैं कि सरकार को यह लाभ सामान्य वर्ग को तत्काल देना चाहिए. हालांकि कमलनाथ सरकार ने सवर्ण आरक्षण को लागू किए जाने का निर्णय अब तक नहीं लिया है. भारतीय जनता पार्टी भी राज्य में सवर्ण आरक्षण को लागू कराने की मांग पर दबाव नहीं बना पा रही है. कांग्रेस की पूरी कोशिश है कि सवर्ण आरक्षण के साथ-साथ ही अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को बढ़ाने के मामले को भी हवा दी जाए.

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