2019 लोकसभा चुनाव की कहानी देश के सबसे ताकतवर राजनेता नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द घूम रही है. क्या मोदी मैजिक अब भी कायम है? क्या मोदी 2019 में एक बार फिर सत्ता में वापसी करेंगे? जितने भी सवाल हैं, सब मोदी को लेकर हैं. बेशक तीन राज्यों के चुनाव जीतकर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने अपनी नाकामियों का सिलसिला खत्म किया हो, लेकिन वह राजनीतिक विमर्श के केंद्र में उस तरह नहीं है, जिस तरह 2014 के चुनाव से पहले मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी थी. मोदी के बरक्स ज्यादा चर्चा उन लोगों की है, जो 2019 में एनडीए का रास्ता रोक सकते हैं. इस समय सबसे ज्यादा मीडिया अटेंशन मायावती और अखिलेश की जोड़ी को मिल रहा है. यह माना जा रहा है कि अगर मोदी रथ रुका तो इसमें सबसे बड़ी भूमिका बुआ और बबुआ की होगी. ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षा और बंगाल में उन्हें मिलने वाली संभावित सीटों को लेकर भी खूब चर्चा है. लेकिन बातों से अलग एक अहम सवाल यह होना चाहिए कि 2019 में कांग्रेस का क्या होगा? अगर तीन लोकसभा चुनाव यानी 1996,1998 और 1999 को छोड़े दें तो कांग्रेस हमेशा से इस देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल रहा है. 1999 को अलग रखें तो कोई भी ऐसी लोकसभा नहीं रही, जहां कांग्रेस की सरकार बनाने, बनवाने या गिरवाने में कोई भूमिका ना रही हो. लेकिन 2014 के चुनाव ने सबकुछ बदल कर रख दिया. मोदी लहर ने कांग्रेस के आंकड़े को 100 नहीं बल्कि 50 से भी नीचे पहुंचा दिया. नतीजा यह हुआ कि लोकसभा में उसे मुख्य विपक्षी दल का दर्जा तक हासिल नहीं हो पाया और यह भी पूछा जाने लगा कि कांग्रेस आने वाले समय में अपना वजूद कायम रख पाएगी. लेकिन एक-डेढ़ साल में हालात बदले हैं. इसमें कोई शक नहीं कि अलग-अलग उप-चुनावों में कांग्रेस ने लगातार बेहतर प्रदर्शन किया है. मध्य-प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मिली सत्ता ने उसे एक नया आत्मविश्वास दिया है. लेकिन 2019 में कांग्रेस की गाड़ी कहां तक आगे बढ़ पाएगी? मान लीजिये कांग्रेस बहुत अच्छा प्रदर्शन करे और अपनी सीटें 300 फीसदी तक बढ़ा ले, जैसा कि कई सर्वे बता रहे हैं, तब भी उसका आंकड़ा ज्यादा से ज्यादा 120 तक ही पहुंच पाएगा. यानी कांग्रेस पूरा जोर लगाकर भी अपने इतिहास के दूसरे सबसे खराब प्रदर्शन के आसपास पहुंच पाएगी, जो उसने 1999 में किया था, जब पार्टी को 114 लोकसभा सीटें मिली थीं. सिर्फ मोदी को रोकना काफी नहीं मान लीजिए 2019 में एनडीए भी सरकार बनाने में नाकाम रही तो कांग्रेस क्या करेगी? सौ या सवा सौ सीटों वाली कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में कौन सी ऐसी भूमिका निभा पाएगी, जिससे जनता में उसका विश्वास मजबूत हो. क्षेत्रीय पार्टियों के अपने सपने हैं. क्षत्रप ऐसे मौके की आस लगाए बैठे हैं, जहां किसी की सरकार ना बने और वे अपने लिए ज्यादा से ज्यादा सौदेबाजी कर सकें. ऐसे में कांग्रेस ने किसी तरह अपनी अगुआई में सरकार बना भी ली तो, तो क्या होगा? क्या राहुल गांधी की कांग्रेस उस तरह से किसी गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर पाएगी जिस तरह सोनिया और मनमोहन की कांग्रेस ने किया था? अगर खिचड़ी सरकार नाकाम रही तो ठीकरा कांग्रेस के माथे पर फूटेगा और सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते बीजेपी के सत्ता में वापस आने का रास्ता साफ हो जाएगा. ये भी पढ़ें: कर्नाटक CM कुमारस्वामी की कांग्रेस को चेतावनी- मैं पद छोड़ने के लिए तैयार हूं 2019 के हालात 2004 जैसे नहीं होंगे, जाहिर है कई दलों के गठबंधन वाली सरकार को चला पाना ज्यादा मुश्किल चुनौती होगी. कांग्रेस 1996 जैसी स्थिति में भी नहीं है, जब उसने क्षेत्रीय दलों के तीसरे मोर्चे को बाहर से समर्थन दिया था, ताकि बीजेपी को रोका जा सके. इस समय कांग्रेस अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही है, ऐसे में इस तरह कोई प्रयोग उसके लिए और ज्यादा आत्मघाती हो सकता है. इस तरह देखा जाए तो 2019 के चुनाव को लेकर जितना टेंशन नरेंद्र मोदी को होगा, राहुल गांधी का तनाव भी उससे किसी मायने में कम नहीं होगा. फ्रंटफुट पर खेलना कांग्रेस की मजबूरी है यह बात बहुत साफ है कि कांग्रेस के लिए 2019 का चुनाव सिर्फ मोदी हटाओ नहीं बल्कि अपना वजूद बचाओ भी है. उसे एक दीर्घकालिक रोडमैप के साथ चुनाव में उतरना होगा. लेकिन क्या कांग्रेस ऐसा करती दिख रही है? राहुल गांधी बार-बार कह रहे हैं कि बंगाल हो या गुजरात इस बार हम हर जगह फ्रंटफुट पर खेलेंगे. सच पूछा जाए तो कांग्रेस के पास इसके अलावा कोई और रास्ता भी नहीं है. हाल में हुए तमाम सर्वे बता रहे हैं कि पंजाब को छोड़कर किसी भी बड़े राज्य में कांग्रेस नंबर वन पार्टी नहीं है. जिन राज्यों में उसकी सरकार भी है, वहां लोकसभा चुनावों में बीजेपी फिलहाल बहुत आगे नजर आ रही है. बंगाल, बिहार, यूपी और बिहार जैसे तमाम राज्यों में कांग्रेस के अपने कोर वोटर तो हैं लेकिन पार्टी के तौर पर वह फिसलती हुई काफी नीचे पहुंच चुकी है. कांग्रेस के पास ना तो बीजेपी जैसा मजबूत काडर है और ना ही हरेक राज्य में मजबूत स्थानीय नेता. इन सबके बीच 2019 में कांग्रेस के लिए दोहरी चुनौती है. पहली चुनौती यह है कि गठबंधन बनाकर वह अपनी सीटें बढ़ाए और मोदी विरोधी बाकी ताकतों को मजबूत करे. दूसरी और ज्यादा बड़ी चुनौती यह है कि कांग्रेस अपने पांव इतने मजबूत करे कि आगे चलकर साझीदारों पर उसकी निर्भरता कम हो जाए. यह एक दिलचस्प बहस है कि इन दोनों चुनौतियों में कौन सी ज्यादा बड़ी है. जवाब आसान नहीं है. मोदी-शाह की जोड़ी जिस शैली की आक्रामक राजनीति करती है, उसमें अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए सत्ता जरूरी है. लेकिन अगर राष्ट्रीय दल के रूप में अगर कांग्रेस अपनी खोई जमीन दोबारा हासिल नहीं करती है तो यह ना तो उसके लिए अच्छा होगा और ना देश के लिए. बहुत से राजनीतिक विश्लेषक यह कह रहे हैं कि कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों से समझौते में लचीलापन नहीं दिखा रही है और इस तरह का रवैया 2019 में उसे नुकसान पहुंचाएगा. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जरूरत से ज्यादा लचीलापन कांग्रेस को इतना दीर्घकालिक नुकसान पहुंचाएगा कि आगे चलकर उसकी भरपाई नामुमकिन हो जाएगी. गठबंधन भारतीय राजनीति का एक जरूरी पहलू है. अपनी लोकप्रियता के चरम पर भी नरेंद्र मोदी ने बहुत से छोटे-छोटे दलों को साथ लिया था. लेकिन कांग्रेस की स्थिति इस समय बहुत अलग है. जिन राज्यों में वह गठबंधन साझीदार ढूंढ रही है, वहां क्षेत्रीय दल बहुत ज्यादा मजबूत हैं. ये पार्टियां कांग्रेस को बहुत कम सीटें दे रही हैं. पश्चिम बंगाल में 2014 में कांग्रेस ने 4 सीटें जीती थीं. दो सीटों पर उसके उम्मीदवार बेहद मामूली अंतर से हारे थे. मान लीजिए अगर कांग्रेस समझौता करना चाहे तो क्या ममता बनर्जी उसके लिए छह सीटें छोड़ने की तैयार होगी? मौजूदा स्थितियों में ऐसा हो पाना लगभग असंभव लगता है. यूपी में भी कुछ ऐसी ही कहानी है. कांग्रेस लगातार यह कह रही थी कि मोदी को हराने के लिए वह त्याग करने को तैयार है. लेकिन अगर कांग्रेस सरीखा कोई राष्ट्रीय दल बेहद कम सीटों पर चुनाव लड़ेगा तो उसका पूरा संगठन मृतप्राय हो जाएगा और पार्टी कभी पुनर्जीवित नहीं हो पाएगी. यही वजह है कि राहुल गांधी हर जगह फ्रंटफुट पर खेलने की बात कर रहे हैं. 2019 में इसका नतीजा चाहे जो लेकिन आगे चलकर यकीनन फायदा होगा. क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस के लिए ज्यादा बड़ा खतरा जो लोग राजनीति पर बारीक नजर नहीं रखते, उन्हें यह बात अटपटी लग सकती है लेकिन सच यह है कि कांग्रेस के लिेए क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी के मुकाबले ज्यादा बड़ा सिरदर्द हैं. कांग्रेस और बीजेपी देश की दो सबसे बड़ी पार्टियां है. जहां इनके बीच आमने-सामने की लड़ाई है, वहां दोनों का फायदा है. एक पार्टी कमजोर होती है तो दूसरी स्वभाविक रूप से सत्ता में आ जाती है. मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ इसका बड़ा उदाहरण हैं. कांग्रेस के पास कोई संगठन नहीं था. मुख्यमंत्री का चेहरा भी पार्टी ने सामने नहीं रखा. लेकिन इसके बावजूद सत्ता में आ गई क्योंकि कोई तीसरा दावेदार नहीं था. लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों के साथ लड़ाई की कहानी अलग है. कांग्रेस पिछले बीस-पच्चीस साल में जितना सिकुड़ी है, उसके लिए ये तमाम पार्टियां ही जिम्मेदार है. कांग्रेस से अलग हुए जगन मोहन रेड्डी ने आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस बनाई. इसका नतीजा यह हुआ कि एक समय आंध्र प्रदेश पर राज करने वाली कांग्रेस तीसरे नंबर पर पहुंच गई. ये भी पढ़ें: डॉ. राम मनोहर लोहिया को भारत रत्न न मिलना सरकारों से ज्यादा समाजवादियों की नाकामी पड़ोसी राज्य तेलंगाना में भी यही हुआ. केंद्र की कांग्रेसी सरकार ने तेलंगाना बनाते वक्त यह सोचा था कि उसे इसका राजनीतिक फायदा मिलेगा लेकिन नतीजा एकदम उल्टा हुआ. किसी जमाने में कांग्रेस में रहे चंद्रशेखर राव ने कांग्रेस को तेलंगाना से भी बेदखल कर दिया. बंगाल में कांग्रेस से अलग हुई तृणमूल कांग्रेस ने लेफ्ट को पीछे छोड़कर अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर ली और अब वहां बीजेपी के उभार के बाद कांग्रेस 10 परसेंट से भी कम पर सिमटकर रह गई है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने संकेत दिए है कि वह नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए कांग्रेस से हाथ मिला सकती है, लेकिन यह भी याद रखना चाहिए अरविंद केजरीवाल वही राजनेता हैं, जिन्होंने शीला दीक्षित के नेतृत्व वाली 15 साल पुरानी कांग्रेसी सत्ता को उखाड़ फेका था. दिल्ली की लड़ाई अब आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच है और कांग्रेस यहां तीसरे नंबर पर है. यह ठीक है किसी भी चुनाव के नतीजे अंकगणित से तय होते हैं और समीकरण बनाकर नरेंद्र मोदी का रास्ता रोका जा सकता है, लेकिन कांग्रेस के लिए ज्यादा बड़ा सवाल यह होना चाहिए कि आखिर उसे क्या हासिल होगा? राजनीतिक संघर्ष के जरिए अपनी छिन चुकी जमीन वापस पाने के अलावा उसके लिए कोई और रास्ता नहीं है. देश कांग्रेस पर तभी एतबार करेगा जब वह अपने भीतर बहुकोणीय मुकाबले में लड़ने और जीत हासिल करने की ताकत पैदा करेगी.
from Latest News राजनीति Firstpost Hindi http://bit.ly/2G8CxcS
Post Top Ad
Responsive Ads Here
Tuesday, 29 January 2019
Home
Latest News राजनीति Firstpost Hindi
राजनीति
लोकसभा का महासमर: मोदी हार भी गए तो कांग्रेस को क्या मिलेगा?
लोकसभा का महासमर: मोदी हार भी गए तो कांग्रेस को क्या मिलेगा?
Tags
# Latest News राजनीति Firstpost Hindi
# राजनीति
Share This
About Professional News
राजनीति
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
ऑनलाइन SBI देता है कई सुविधाएं, घर बैठे चुटकी में हो जाएंगे आपके ये काम
SBI Online: भारतीय स्टेट बैंक (State Bank of India) अपने ऑनलाइन बैंकिंग पोर्टल पर नेटबैंकिंग की अलावा कई अन्य सुविधाएं देता है. इनका लाभ उठा...
Post Bottom Ad
Responsive Ads Here
Author Details
World Breaking News Brings You The Latest News And Videos From The Hindi Top Breaking News Studios In India. Stay Tuned To The Latest News Stories From India And The World. Access Videos And Photos On Your Device With The Hindi Top Breaking News India News App.
You can Also Learn here How to Invest in Mutual Fund & Stock Market. How You can Earn Money From Trading in Stock Market. How You can Become a Successful Trader.
No comments:
Post a Comment